देऊरपारा का कर्णेश्वर महादेव: छत्तीसगढ का कर्ण प्रयाग

प्रस्तुतकर्ता Unknown शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

महानदी उद्गम 
पुरातात्विक एवं सांस्कृतिक खजाने से छत्तीसगढ समृद्ध है। हम छत्तीसगढ में किसी भी स्थान पर चले जाएं, वहां कुछ न कुछ प्राप्त होता है और हमारी विरासत को देख कर गर्व से भाल उन्नत हो जाता है। चित्रोत्पला गंगा (महानदी) भारत की प्रमुख नदियों में से एक है। महाभारत के भीष्म पर्व में चित्रोत्पला नदी को पुण्यदायिनी और पाप विनाशिनी कहकर स्तुति की गयी है - उत्पलेशं सभासाद्या यीवच्चित्रा महेश्वरी। चित्रोत्पलेति कथिता सर्वपाप प्रणाशिनी॥ चित्रोत्पला गंगा के तट पर सभ्यता का विकास हुआ, शासकों ने राजधानी बनाई और समृद्धि पाई। रायपुर से धमतरी होते हुए 140 किलो मीटर पर नगरी-सिहावा है, यहां रामायण कालीन सप्त ॠषियों के प्रसिद्ध आश्रम हैं। नगरी से आगे चल कर लगभग 10 किलोमीटर पर भीतररास नामक ग्राम है। वहीं पर श्रृंगि पर्वत से महानदी  निकली है। यही स्थान महानदी का उद्गम माना गया है। यहीं महेन्द्र गिरि पर्वत है, जहाँ महर्षि परशुराम का आश्रम है। नगरी और सिहावा के मध्य में देऊरपारा कर्णेश्वर महादेव का प्राचीन मंदिर है। यह मंदिर राज्य पुरातत्व के संरक्षण में दर्शनीय स्थल है। यहां छत्तीसगढ पर्यटन विभाग का नव निर्मित रेस्ट हाऊस भी है।

कर्णेश्वर महादेव मंदिर में शिलालेख
नगरी से 6 किलोमीटर पर स्थित है देऊरपारा, इसे छिपली पारा भी कहते हैं। यह गाँव महानदी और बालुका नदी के संगम पर पहाड़ी की तलहटी में बसा है। नदी के एक फ़र्लांग की दूरी पर कर्णेश्वर महादेव का मंदिर है। राम मंदिर में प्रवेश करता हूं तो मुझे यहां स्थित मूर्तियां काफ़ी पुरानी दिखती हैं और मेरी जिज्ञासा बढती है कि इस स्थान के विषय में और अधिक जानकारी प्राप्त करुं। राम मंदिर से लगा हुआ कर्णेश्वर महादेव का मंदिर है। मंदिर के गर्भ गृह का द्वार अलंकृत है। दाहिने हाथ की तरफ़ नागरी लिपि एक शिलालेख लगा हुआ है। शिलालेख देखकर इस मंदिर के एतिहासिक महत्व का दृष्टिगोचर होता है। देऊर पारा के इन मंदिरों का निर्माण कांकेर के सोमवंशी राजाओं ने 12 वीं सदी में कराया था। सपाट बलुआ पत्थर पर अभिलेख अंकित है। कर्णेश्वर महादेव के सम्मुख नंदी भी विराजमान हैं तथा नंदी के मंडप के पीछे गणेश जी का विग्रह स्थापित है। इस स्थान पर गांव के यादव समाज, पटेल समाज, विश्वकर्मा समाज, केंवट समाज, आदि ने भी मंदिर बना रखे हैं। मंदिर प्रांगण में कबीर चौरा भी दिखाई दिया। इससे लगा हुआ सतनामी समाज का जैतखांभ भी है। मंदिर की उत्तर दिशा में एक कुंड बना हुआ है। इसे किसने और कब बनाया, इसकी जानकारी तो नहीं मिली। अनुमान है कि मंदिर बनाने के लिए किए गए पत्थरों के उत्खनन से कुंड का निर्माण हुआ होगा।

राम मंदिर का दृश्य
मंदिर परिसर में मेरी मुलाकात पुजारी राजेन्द्र पुरी गोस्वामी से होती है। मैं उनसे चर्चा करता हूँ एवं इस स्थान के विषय में जानकारी प्राप्त करने की कोशिश करता हूँ। वे बताते है कि जिसे राम मंदिर कहते हैं उसमें विष्णु भगवान की दो मूर्तियाँ एवं एक मूर्ति सूर्य की है। पहले मंदिर नदी के किनारे हुआ करता था। लेकिन कालांतर में समय की मार से वह ध्वस्त हो गया और उसके भग्नावशेष अभी तक नदी में पड़े हैं। वहाँ से इन  मूर्तियों  को कर्णेश्वर महादेव मंदिर के समीप स्थापित किया गया। गणेश जी की मूर्ति को सिहावा के तत्कालीन थानेदार गुप्ता जी ने मंदिर के भग्नावशेष का जीर्णोद्धार करके स्थापित कराया था। गाँव की आबादी अधिक नहीं है लगभग 70 घर हैं। जिनमें 7 घर ब्राह्मण, 15 साहू, 10 गोस्वामी, 7  केंवट, 10 गोंड , 4 राऊत , 1 लोहार, 3 सारथी एवं अन्य निवासी हैं।  गाँव में नाई का एक भी घर नहीं है। वे बताते हैं कि गांव में नाई नदी पार के गांव सिरसिदा से आता है। वही गांव का काम करता है। ग्रामीणों के जीवन यापन का मुख्य साधन खेती है। कुछ लोग नौकरी में भी लगे हैं। रामेश्वरी साहू भूतपूर्व जनपद सदस्य कहती हैं, नदी के किनारे बसे होने पर भी गांव में पीने के पानी की समस्या है। इस सड़क को मैने अपने कार्यक्राल में बनवाया था।हम राजेन्द्र पुरी गोस्वामी के साथ महानदी और बालूका के संगम की ओर चल पड़ते हैं।

राजेन्द्र पुरी गोस्वामी एवं ब्लॉगर
महानदी के तट पर मोती तालाब है, इस तालाब में भी एक कुंड बना हुआ है, इसे अमृत कुंड या औषधि कुंड कहते हैं। राजेन्द्र पुरी बताते हैं कि इस कुंड में नहाने से बड़े से बड़े रोग का शमन हो जाता है, ऐसी मान्यता है। कुंड सूखा पड़ा है, नहाने की बात तो दूर अभी इसमें उतर भी नहीं सकते। कहते हैं कि एक राजा को कोढ हो गया था। वह इस स्थान पर शिकार करने आए थे, एक दिन उसके कुत्ते इस कुंड में नहाकर उसके पास पहुंचे, कुत्तों ने थरथरी लेकर पानी को झाड़ा, वह पानी राजा के शरीर में गिरा। जिससे कुछ दिनों बाद उसका कोढ ठीक गया। तब से मान्यता है कि इस औषधि कुंड में जो भी नहाएगा उसके समस्त रोग ठीक हो जाएगें। कुंड से लगा हुआ नदी किनारे एक आम का वृक्ष है, इसके नीचे की भूमि को लीप-बहार कर बैठने लायक बना दिया है। इस वृक्ष के नीचे लोग अपने मृतकों का संस्कार करते हैं, मुंडन एवं पिंड दान इत्यादि यहीं होता है। डोमार प्रसाद मिश्रा कहते हैं कि यहां पर अस्थि विसर्जन करने के ढाई दिनों के पश्चात अस्थियों के अवशेष नहीं मिलते, यह प्रमाणित है। उड़ीसा, बस्तर कांकेर आदि से लोग अस्थि विर्सजन के लिए आते हैं।

रुपई
डोमार प्रसाद मिश्रा मुझे मोती तालाब के उस स्थान पर ले जाते हैं जहां सोनई और रुपई नामक स्थान है। आम के पेड के एक तरफ़ रुपई एवं दुसरी तरफ़ सोनई है। मोती तालाब के गहरीकरण के समय इस स्थान को नहीं खोदा गया। कहते हैं यहां खजाना गड़ा हुआ है और दैवीय स्थान है। कई बरस पहले कुछ तांत्रिको ने यहां से खजाना (हंडा) निकालने का प्रयास किया था परन्तु वे सफ़ल नहीं हुए। उसके बाद किसी ने इस स्थान पर उत्खनन करने का प्रयास नहीं किया। विशेष पर्व पर इन स्थानों ही होम धूप देकर पूजा की जाती है। (छत्तीसगढ में हंडा (गड़े धन) के विषय में गाँव-गाँव में चर्चाएं चलते रहती हैं, बैगा और तांत्रिक हंडे का लालच दिखा कर लोगों की जेब खाली करवाते रहते हैं, मुझे तो आज तक कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला, जिसने कहा हो कि उसे हंडा मिला है। हाँ, हंडे के पीछे धन सम्पत्ति गंवाकर कंगाल बने लोग यदा-कदा मिल जाते हैं।

समाधियाँ
मोती तालाब से मुझे पहाड़ी की तलहटी में कुछ समाधियां बनी दिखाई देती हैं। हम सड़क के उस पार चल कर समाधियों पास पहुंचे। राजेन्द्र पुरी बताते हैं कि उनके पूर्वज 200 साल पहले इस गाँव में उत्तर प्रदेश से आए थे। उत्तर प्रदेश के किस गाँव से आए थे इसका उन्हे पता नहीं। यहाँ आकर उन्होने मंदिर के भग्नावशेष में शरण ली। उन्हे यहाँ शिव जी मिल गए और उन्होने पूजा शुरु कर दी। उसके पश्चात उनका परिवार यहीं का हो कर रह गया। अब मंदिर में राजेन्द्र पुरी पूजा करते हैं। ये समाधियाँ उनके पूर्वजों की हैं। एक समाधि मौनी महाराज की है, मौनी महाराज लगभग डेढ सौ वर्ष पूर्व हुए हैं, इन्होने 16 साल मौन रह कर तपस्या की। मंदिर के सर्वराकार गणेश महाराज हुए, उन्हे गांव के मालगुजार गोपाल सिंह ने पाँच एकड़ जमीन 1927 मे दी। यह जमीन अब भी मंदिर के नाम से ही है। इस पर गाँव वाले रेग (किराए पर) खेती करते हैं। मंदिर इस जमीन पर ही माघ के महीने में पुन्नी मेला भरता है।

महानदी एवं बालूका नदी का संगम
हम चल कर नदी के संगम पर पहुंचते हैं। यहां पर रेत की बोरियों से पानी रोक कर निस्तारी के लिए उपयोग किया जा रहा है। नदी पर सकरिया गांव दिखाई दे रहा है। उसके दायीं तरफ़ से बालूका नदी आकर महानदी में मिल रही है। राजेन्द्र पुरी कहते हैं, उनके दादा बताते थे कि नदी के तट से एक सुरंग उनके घर तक जाती है। एक दिन कोई मंछन्दर नदी में मछली मारते हुए सुरंग में प्रवेश कर गया और उनके घर के पास जाकर निकला। उन्हे सुरंग दिखाने कहता हूँ तो वे कहते हैं कि उन्होने सुरंग में जाने का कभी प्रयास नहीं किया और न ही किसी गाँव वाले ने डरकर उसमें जाने का प्रयास किया। हम तो बाबू आपको पूर्वजों से सुनी सुनाई बता रहे हैं। ग्रामीण अंचल में पीढी दर पीढी किंवदंत्तियाँ चलते रहती हैं, इनके मूल में कहीं न कहीं सत्य छिपा होता है। जो कालांतर मे प्रकट होता है। हम वापस मंदिर की ओर चल पड़ते हैं।

प्राप्त मूर्तियाँ
डोमार मिश्रा कहते हैं कि पहले हमारा एक ही घर था। परिवार बढने के साथ बंटवारा होता गया, घर भी बढ गए। गाँव की गलियों में चलते हुए मंदिर पहुंचते हैं। वहां राजेन्द्र पुरी नारियल फ़ोड़ कर उसकी गिरी खिलाते हैं। समीप ही बने हुए एक कमरे में इस स्थान से प्राप्त 15 मूर्तियाँ रखी हैं। यहां मुझे संग्रहालय जैसा ही दृश्य दिखाई दिया। वहाँ पर बैठे कुछ ग्रामीणों से चर्चा होती है, मंदिर के संचालन के लिए संचालन समिति बनी हुई है। समिति ही मंदिर की देखरेख करती है। मंदिर के प्रांगण में चंपा (सप्त पर्णी) का पेड़ है, उसके सुंदर सफ़ेद फ़ूल प्रांगण में झर रहे हैं। दर्शनार्थी उन फ़ूलों पर पैर नहीं रखते, उन्हे बचा कर चलते हैं। धूप बढती जा रही है और भूख भी। भोजन का समय होता है। हमारे भोजन का इंतजाम रामेश्वरी साहू के घर पर है। घर पहुंचने पर वे स्नेह से हमें भोजन कराती हैं।

महानदी  का उद्गम
भोजनोपरांत हम सिहावा की ओर चल पड़ते हैं, यहां रामायण कालीन सप्त ॠषियों के नाम से पर्वत हैं। सामने श्रृंगि ॠषि पर्वत सड़क के उस पार है और महानदी का उद्गम सड़क के इस पार। इस पर्वत को श्रृंगि नामक होने की जनश्रुति मिलती हैं। श्रृंगि ऋषि का विवाह रामचन्द्र की बहन शांता से हुआ था। अतः समीप में इसी श्रृंगि पर्वत में शांता गुफा भी हैं। रामायण कालीन प्रसिद्ध सप्त ऋषि-मुनियों ने श्रृंगि ऋषि प्रमुख माने जाते हैं।  कन्क ऋषि के नाम पर कन्क ऋषि पर्वत,  शरभंग ऋषि के नाम से शरभंग पर्वत,  अगस्त्य ऋषि के  नाम पर अगस्त्य पर्वत, मुचकुन्द ऋषि एक प्रमुख ऋषि थे। सप्त ऋषियों में इनका भी नाम है। इन्हीं के नाम पर सिहावा क्षेत्र में मेचका पर्वत अर्थात् मुचकुन्द पहाड़ी, गौतम ऋषि के नाम पर गौतम पर्वत, सप्त ऋषियों में से अंगिरा ऋषि का भी महत्वपूर्ण स्थान हैं। इनके नाम पर सिहावा में पर्वत है, जिसे अंगिरा पर्वत कहा जाता हैं। रामायण काल में भगवान श्रीराम अंगिरा ऋषि से भी भेंट कर उनसे परामर्श लिये थे। यहाँ इन सप्त ॠषियों के आश्रम प्रसिद्ध हैं।

राम मंदिर में नदी तट के मंदिर की स्थापित मूर्तियाँ 
श्रृंगि ॠषि पर्वत से महानदी का उद्गम हुआ हैं। पर्वत से सड़क के नीचे से नदी बहती है। उद्गम स्थल पर दो चट्टानों के बीच सफ़ेद झंडिया लगा रखी हैं। एक बाबाजी नदी के बीच बड़ी सी चट्टान पर बैठे हैं। मैं नदी मे उतरता हूं तो चिकने पत्थरों पर पैर फ़िसल जाता और धड़ाम से नदी में ……… कैमरा संभालने की कोशिश करता हूँ और पानी से कैमरे को बचाने में कामयाब हो जाता हूँ। कुछ चित्र उद्गम के लेता हूँ। मेरी यात्रा का यह महत्वपूर्ण पड़ाव है। उद्गम के चित्र लेने के लिए ही मुझे जंगल में आना पड़ा। यहाँ अपने उद्गम से महानदी विपरीत दिशा में बहती दिखाई देती है। जो वहां से चलकर देऊर पारा होते हुए सिरसिदा ग्राम तक जाती है। सिरसिदा एवं देऊर पारा को नदी विभाजित करती है और यहीं पर बालुका और महानदी का संगम है। नदी के किनारे वन में स्थित होने के कारण स्थान सुरम्य एवं रमणीय है। पर्यटन के लिए उत्तम स्थान है, इस रामायण कालीन प्रसिद्ध स्थान पर समय हो तो एक बार अवश्य आएं।
नोट:-छत्तीसगढ के धमतरी जिले में रायपुर से 110 किलो मीटर की दुरी पर नगरी तहसील स्थित है। नगरी से देऊरपारा 6 किलो मीटर है तथा यहाँ से लगभग 4 किलोमीटर पर सिहावा है। रायपुर से नगरी के लिए बस की सुविधा है। समीपस्थ रेल्वे स्टेशन धमतरी (नेरो गेज) और एयर पोर्ट रायपुर है। रायपुर से टैक्सी या बस द्वारा भी धमतरी होते हुए नगरी-सिहावा पहुंचा जा सकता है। आप यहाँ किसी भी मौसम में आ सकते है। रुकने के लिए नगरी, सिहावा, देऊर पारा में रेस्टहाऊस एवं धमतरी में होटल की सुविधा है। 

3 टिप्पणियाँ

  1. रोचक, सचित्र वर्णन ...सैलानी की कलम ने घर बैठे कर्ण प्रयाग को शब्दों में जीवंत कर दिया ....वाह... वहां आने के बारे में सारी जानकारी और सुविधाओं का वर्णन भी हैं यहाँ... आभार

     
  2. यात्रा का सचित्र और रोचक वर्णन बहुत अच्छा लगा ,आभार !

    प्रागैतिहासिक काल के ये जीवंत प्रमाण दोनो महाकाव्यों की सच्चाई को उजागर करते हैं .इनका संरक्षण होना चाहिये.

     
  3. बहुत सुंदर प्रस्‍तुति ..

     

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