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रामगढ से लौटते हुए |
कॉलेज के दिनों से ही प्रकृति का सामिप्य एवं सानिध्य पाने, प्राचीन धरोहरों को देखने और उसकी निर्माण तकनीक को समझने की जिज्ञासा मुझे शहर-शहर, प्रदेश-प्रदेश भटकाती रही। कहीं चमगादड़ों का बसेरा बनी प्राचीन ईमारतें, कहीं गुफ़ाएं, कंदराएं, कहीं उमड़ता-घुमड़ता ठाठें मारता समुद्र, कही घनघोर वन आकर्षित करते रहे। मेरा तन और मन दोनों प्रकृति के समीप ही रहना चाहता है। जब भी समय मिलता है, प्रकृति का सामीप्य पाने का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहता। संसार विशाल है, यातायात तथा संचार के आधुनिक साधनों ने इसे बहुत छोटा बना दिया। एक क्लिक पर हम हजारों किलोमीटर की दूरी तय कर लेते हैं, एक क्लिक पर मंगल एवं चंद्रमा की सैर पर पहुंच जाते हैं। पर ये आधुनिक साधन है जिनसे हम सिर्फ़ उतना ही देख पाते हैं जितनी कैमरे की आँख देखती है। मनुष्य की आँखे कैमरे के अतिरिक्त भी बहुत कुछ और उससे अलग देखती हैं। कैमरे की आँख में पूरा विषय नहीं समाता। किसी भी दृश्य को आँखों से देखने के बाद उसे सहेजने के लिए निर्माता (ईश्वर) कोई साधन नहीं बनाया। अगर बनाया होता तो कैमरे का अविष्कार ही नहीं होता। इसलिए इन्हे अपनी आँखों से ही देखने की मेरी कोशिश रही है।
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अयोध्या में सरयु के किनारे फ़ैली हुई थैलियां |
मनुष्य की एक प्रवृति यह भी है कि वह अपने घर का आँगन साफ़ रखना चाहता है पर अपने आँगन का कचरा दूसरे के आँगन में फ़ेकना भी चाहता है। घुमंतु होने के कारण मैने पर्यटन स्थलों पर देखा है कि लोगों को पर्यावरण की तनिक भी समझ नहीं है। वे अपने साथ लाया हुआ कचरा उपयोग के पश्चात जहाँ जाते हैं वहीं फ़ैला देते हैं, छोड़ आते हैं। प्लास्टिक की थैलियाँ हों या पानी की बोतले, यह कचरा कभी भी खत्म नहीं होता। इससे पर्यावरण को हानि पहुंचती है। लोग नदियों के उद्गम, समुद्र के किनारे, नदियों के किनारे बसे हुए धार्मिक स्थलो पर प्लास्टिक का कचरा छोड़ आते हैं। चारों तरफ़ हवा में प्लास्टिक की थैलियाँ ही थैलियाँ उड़ते रहती है। पानी की बोतलें पड़ी रहती है। कचरे को साफ़ करने वाले हाथ सीमित होते और फ़ैलाने वाले लाखों। इन्हे देखकर पर्यावरण एवं प्रकृति प्रेमी सिर्फ़ सिर ही पीट सकता है, दु:खी हो सकता है इसके अलावा कुछ नहीं कर सकता। क्योंकि समझने, समझाने वा्ले कम है, बर्बाद करने वाले लाखों। प्रदूषण से पवित्र गंगा का जल भी प्रदूषित हो चुका है। अब तो गंगा जल का आचमन करने में संक्रमित होने का डर बना रहता है। प्रदूषण का स्तर इतना अधिक बढ गया है, जल-थल-वायु प्रदुषण से मुक्त नहीं है। यत्र-तत्र-सर्वत्र प्रदूषण ही फ़ैला हुआ है।
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वृक्ष के वक्ष पर गोदना |
प्रकृति का श्रंगार वन हैं, हरियाली है, जब मनुष्य शहरी जीवन से ऊब जाता है तो वनों की ओर भागता है, लेकिन वहाँ भी प्रदुषण फ़ैलाने में यहां भी नहीं चूकता, कहीं पेड़ों के तने को खोद कर अपना नाम लिखेगा तो कहीं प्लास्टिक का कचरा फ़ैलाकर वनस्पति को हानि पहुंचाएगा। प्लास्टिक के कचरे में खाने का सामान होने पर लोभवश पशु उसे थैली सहित ही खा लेते हैं जो पशुओं के अमाशय में जमा होकर उनकी मृत्यु का कारक बनता हैं। वनों की अंधाधुन्ध कटाई के साथ बढते हुए शहर और गाँव के कारण वनों में मनुष्य हस्तक्षेप बढते जा रहा है। पशु, पक्षी, अपने प्राकृतिक निवास में असुरक्षित हो गए हैं। पर्यावरण असंतुलन होने के कारण उन्हे भोजन-पानी नहीं मिल पाता और वे शहर,गाँव की ओर आकर ग्रामीणों द्वारा मारे जाकर अकारण ही काल का ग्रास बन जाते हैं। अगर यही स्थिति रही तो कुछ वर्षों में धूप से सिर छिपाने के लिए भी जगह नहीं मिलेगी एवं पीने के लिए पानी नहीं। मनुष्य अपने हाथों ही अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार रहा है। जिस सभ्यता पर उसे गर्व है, उसे अपने हाथों ही खत्म कर रहा है। वह दिन दूर नहीं जब यह सभ्यता भी समाप्त होकर किसी बड़े टीले के नीचे हजारों साल बाद किसी पुराशास्त्री को उत्खनन में प्राप्त होगी और वे इसका काल निर्धारण कर कयास लगाएगें कि इस सभ्यता का विनाश कैसे हुआ?
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प्राचीन नाट्य शाला सीता बेंगरा रामगढ सरगुजा |
जहाँ कहीं भी पुरातात्विक धरोहरे हैं वहाँ पर मैने देखा है कि कुछ बेवकूफ़ किस्म के पर्यटक दीवारों पर अपने नाम गोद देते हैं। अपने नाम के साथ किसी लड़की का नाम जोड़ कर लिखना नहीं भूलते, और हद तो तब हो जाती है जब वे दीवालों पर तीर से बिंधा हुआ दिल का चिन्ह बनाते हैं। इस कुकृत्य (इसे कुकृत्य ही कहुंगा) पीछे इनकी मंशा पत्थर पर अपना नाम गोद कर अमर हो जाने की रहती है। जैसे हीर-रांझा, सीरी-फ़रहाद, सस्सी-पुन्नु, लैला-मजनुं, सोहनी-महिवाल, लोरिक-चंदा आदि की प्रेम कहानियाँ अमर हो गई, उसी तरह इतिहास में ये भी याद रखे जाएं। परन्तु इन्हे पता नहीं कि वे जिस पुरातात्विक धरोहर के साथ ऐसा व्यवहार कर रहे हैं वह उनकी गलती के कारण आने वाली पीढी के लिए असुरक्षित हो गयी है। जिस दिन से उन्होने उसके साथ छेड़खानी की, उसी दिन से पुरातात्विक धरोहर के नष्ट होने की उल्टी गिनती शुरु हो गयी। मैने कई जगह देखा कि उत्त्खनन से प्राप्त मूर्तियों पर लोग धार्मिक भावना से सिंदूर पोत देते हैं, रोली लगा देते हैं। अक्षत या फ़ल फ़ूल चढाते हैं, इससे सड़न होकर बैक्टीरिया पैदा होते हैं जिससे कालांतर में प्राचीन मूर्तियों का क्षरण होता है। इनकी सुरक्षा को लेकर लोग संबंधित विभागों पर चढाई करते हैं, लेकिन ध्यान में यह भी होना चाहिए कि देश का नागरिक होने के कारण पर्यावरण, एवं पुरातात्विक धरोहरों की सुरक्षा की महती जिम्मेदारी उनकी भी है।
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सीता बेंगरा रामगढ में मंच का निर्माण कर प्राकृतिक सौदर्य का खात्मा |
जिन किलों और महलों के द्वार पर खड़े होने की हिम्मत किसी ऐरे-गैरे इंसान की नहीं होती थी वह मजे से पर्यटक बनकर जाता है और अपनी दुर्बुद्धि का चिन्ह वहाँ छोड़ आता है। अभी मैने रामगढ में ही देखा, गुफ़ा तक पहुचने के लिए सीढियाँ बना दी गयी हैं। गुफ़ा के सामने मंच बना दिया है। जिससे गुफ़ा की प्राकृतिक पहचान खो गयी है। पर्यटक सीढियों से चढ कर सीधे ही गुफ़ा में प्रवेश कर जाते हैं। जहाँ बेशकीमती भित्ति चित्र है, उनका भी क्षरण हो रहा है। नाट्यशाला के सामने चट्टानों पर लोगों ने अपने नाम गोद दिए हैं। जो दूर से ही दिखाई देते हैं। बलुआ पत्थर से निर्मित चट्टानों का धीरे-धीरे क्षरण हो रहा है। महेशपुर में बड़े देऊर मंदिर में शिव की प्रतिमा के समक्ष किसी ने संगमरमर का नंदी स्थापित कर दिया है। वहाँ पूजा पाठ शुरु है। ग्रामीण चौकीदारों का कहना नहीं मानते, उनसे लड़ने पर उतारु हो जाते हैं। मामला धार्मिक आस्था पर जाकर खत्म हो जाता है। मेरी राय में पुरातात्विक धरोहरों तक पहुचने के लिए जब से सड़क का निर्माण हुआ है, तब से पर्यटकों की पहुंच आसान हुई है। इससे धरोहरों को हानि अधिक पहुंची है। पुरातात्विक धरोहरों को बचाने के लिए आम नागरिक को भी इनके प्रति संवेदनशील एवं जागरुक होकर अपना योगदान करना पड़ेगा।
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सिरपुर: चेतावनी के बाद भी कोई नहीं चेतता |
दुनिया बहुत बड़ी है, अनेक सभ्यताओं ने यहां जन्म लिया, फ़ली-फ़ूली और फ़ना हो गयी। कोई नहीं बता सकता यह संसार कितनी बार बसा और कितनी बार उजड़ा। संसार के बसने का कारण प्रकृति और ईश्वर है तो विनाश का कारण मनुष्य ही है। अपनी कुबुद्धि से मनुष्य ने इस सुंदर संसार का विनाश ही किया है। इसने पूर्ववर्ती गलतियों से कोई सीख नहीं ली और आज भी नहीं ले रहा है। धरती को उजाड़ने एवं विनाश करने के सारे संसाधन जुटा लिए हैं, परन्तु इसे सुरक्षित रखने की दृष्टि से मनुष्य सभ्य नहीं हुआ है। अगर मनुष्य का बस चलता तो पुरातात्विक महत्व की कोई भी धरोहर इससे बच नहीं पाती, चाहे मोहन जोदडो, हड़प्पा कालीन सभ्यता हो, चाहे मिस्र के पिरामिड हो, चाहे प्रागैतिहासिस काल की प्राचीन खगोल वेधशाला स्टोनहेंज हों, वर्तमान में मनुष्य के समक्ष अपने पूर्वजों के निर्माण एवं उनकी सभ्यता पर गौरव करने के लिए कुछ नहीं बचा होता। इन सबका विनाश अगर प्रकृति ने किया है तो इनका संरक्षण भी प्रकृति ने अपने गर्भ में किया है। कहीं मिट्टी के टीलों में दबी हुई पुराधरोहरें मिली तो कहीं समुद्र की तलहटी में सुरक्षित। परन्तु जैसे ही उत्खनन या अन्य प्रकार से प्रकाश में आईं, इनके विनाश का आगाज़ हो गया और यह अनवरत जारी है। धरोहरों को बचाने की दिशा में समाज को भी जागरुक होना पड़ेगा। तभी हमारी गौरवशाली विरासत बच पाएगी, तभी हम अपनी आने वाली पीढी को सौंप पाएगें।
सरगुजा भ्रमण को यहीं विराम देते हैं, अब मिलेगें हम शीघ्र ही मनसर (महाराष्ट्र) में राजा प्रवरसेन एवं महारानी प्रभावती से तथा रामटेक का भी भ्रमण करेगें।
पोस्ट अपडेट: 18/5/12 के सांध्य दैनिक छत्तीसगढ में पोस्ट का प्रकाशन, (पढने के लिए न्यूज क्लिप पर क्लिक करें।)
सही कहा है आपने प्राचीन धरोहरों और पर्यावरण को बचाने के लिए समाज को जागरूक होना चाहिए... बहुत अच्छा आलेख