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रामगढ में लगे सरकारी स्टाल |
रामगढ छत्तीसगढ के एतिहासिक स्थलों में सबसे प्राचीन है, यह अम्बिकापुर से 50 किलोमीटर दूरी पर समुद्र तल से 3202 फ़ुट की ऊंचाई पर है। रामगढ की पहाड़ी पर स्थित प्राचीन मंदिर, भित्तिचित्रों एवं गुफ़ाओं से सम्पन्न होने के कारण इस स्थान पर प्राचीन भारतीय संस्कृति का परिचय मिलता है। यहाँ सात परकोटों के भग्नावेश हैं। रामगढ पहाड़ी पर स्थित सीता बेंगरा गुफ़ा के समीप ही रामगढ महोत्सव का स्थायी मंच बनाया गया। इस मंच पर ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों का मंचन होना है। मंच के समीप से ही बना हुआ कांक्रीट का रास्ता सीता बेंगरा गुफ़ा तक जाता है जिसे प्राचीन नाट्य शाला कहते हैं। कार्यक्रम प्रारंभ होने में विलंब था तब हमने तय किया गुफ़ा देख कर आया जाए। जंगल में महोत्सव स्थल पर शासन की ग्रामोन्मुख एवं विकासोन्मुख जानकारियाँ देने के लिए सभी विभागों के स्टाल लगे हुए थे। जिसमें पांम्पलेट फ़ोल्डर के साथ जानकारियाँ दी जा रही थी। समीप ही मेले जैसे उत्सव था, खाई-खजानी (मेले के चटर-पटर मिष्ठान) के साथ घरेलु उपयोग में आने वाली वस्तुओं की दुकाने सजी हुई थी। वनवासी मेले एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम का आनंद लेने आए हुए थे। पहाड़ के पास कोई बसाहट नहीं है, दुरस्थ वनवासी मेले में शिरकत करने करमा नाच करने अपने मांदर, ढोल के साथ साज श्रृंगार करके बाजे गाजे के साथ अतिथियों का स्वागत करने के लिए आए हुए हैं।
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जोगीमारा गुफ़ा में सुतनुका और देवद्त्त की कथा कहता शिलालेख |
हम सीता बेंगरा गुफ़ा में पहुचे। सीता बेंगरा नाम सीता जी से संबंधित होने के कारण पड़ा। पहाड़ में ऊंचाई पर खोद कर इसे बनाया गया है। सामने मुख्य नाटय मंच है तथा दांयी तरफ़ जोगी माड़ा गुफ़ा है जिसमें हजारों साल पुराने शैल चित्र हैं। जो समय की मार से अछूते नहीं रहे। धीरे-धीरे इनका क्षरण हो रहा है। लाल रंग से निर्मित कुछ शैल चित्र अभी भी स्पष्ट हैं। जोगीमाड़ा गुफ़ा में मौर्य ब्राह्मी लिपि में शिलालेख अंकित है, जिसे राहुल भैया ने पढ कर सुनाया। जिससे सुतनुका तथा उसके प्रेमी देवदीन के विषय में पता चलता है। जोगीमाड़ा गुफ़ा की उत्तरी दीवाल पर पाँच पंक्तियाँ उत्कीर्ण हैं - पहली पंक्ति-शुतनुक नम। दूसरी पंक्ति-देवदार्शक्यि। तीसरी पंक्ति-शुतनुक नम देवदार्शक्यि। चौथी पंक्ति-तंकमयिथ वलन शेये। पांचवी पंक्ति-देवदिने नम। लुपदखे। अर्थात सुतनुका नाम की देवदासी (के विषय में),सुतनुका नाम की देवदासी को प्रेमासक्त किया। वरुण के उपासक(बनारस निवासी) श्रेष्ठ देवदीन नाम के रुपदक्ष ने। जोगीमाड़ा गुफ़ा की नायिका सुतनुका है। जोगीमाड़ा की गुफ़ाएं प्राचीनतम नाट्यशाला और कवि-सम्मेलन के मंच के रुप में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं।
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सीता बेंगरा नाट्य शाला का विहंगम दृश्य |
हम जोगीमाड़ा गुफ़ा से सीता बेंगरा गुफ़ा में चढते हैं। आज मेला होने के कारण काफ़ी ग्रामवासी पर्यटक आए हुए हैं। गुफ़ा में राम दरबार की मूर्तियां सजा दी गयी हैं। यहां एक पुजारीनुमा बैगा बैठा है जो मुर्तियों सहारे कुछ आमदनी की आस लगाए हुए है। गुफ़ा के भीतर दोनो तरफ़ कक्ष बने हुए हैं जो सामने से दिखाई नहीं देते। मुझे बताया गया कि नाटक करने वाले कलाकार यहीं पर बैठ कर सजते थे और अपनी पात्र की प्रस्तुतिकरण की प्रतीक्षा करते थे। विद्वानों का कहना है कि भारतीय नाट्य के इस आदिमंच के आधार पर ही भरतमुनि ने गुफ़ाकृति नाट्यमंच की व्यवस्था दी होगी- कार्य: शैलगुहाकारो द्विभूमिर्नाट्यामण्डप:। सीता बेंगरा गुफ़ा पत्थरों में ही गैलरीनुमा काट कर बनाई गयी है। यह 44.5 फ़ुट लम्बी एवं 15 फ़ुट चौड़ी है। दीवारें सीधी तथा प्रवेशद्वार गोलाकार है। इस द्वार की ऊंचाई 6 फ़ुट है जो भीतर जाकर 4 फ़ुट ही रह जाती हैं। नाट्यशाला को प्रतिध्वनि रहित करने के लिए दीवारों को छेद दिया है। प्रवेश द्वार के समीप खम्बे गाड़ने के लिए छेद बनाए हैं तथा एक ओर श्रीराम के चरण चिन्ह अंकित हैं। कहते हैं कि ये चरण चिन्ह महाकवि कालीदास के समय भी विद्यमान थे। मेघदूत में रामगिरि पर सिद्धांगनाओं(अप्सराओं) की उपस्थिति तथा उसके रघुपतिपदों से अंकित होने का उल्लेख भी मिलता है।
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सीता बेंगरा में शिलालेखा |
पिछले दिनों मै रामटेक की यात्रा पर गया था, वहां भी कहा गया कि कालीदास ने मेघदूत की रचना यहीं रामटेकरी पर की थी। विद्वानों से प्राप्त जानकारी के अनुसार प्रो वी वी मिराशी द्वारा रामटेक(नागपुर) में रखे गए दो लकड़ी के खड़ाऊं आदि के आधार पर उसे रामगढ बनाने का प्रयास किया था। पर 1906 में पूना से प्रकाशित श्री वी के परांजपे के शोधपरक व्यापक सर्वेक्षण के "ए फ़्रेश लाईन ऑफ़ मेघदूत" द्वारा अब यह सिद्ध हो गया कि रामगढ(सरगुजा) ही श्रीराम की वनवास स्थली एवं मेघदूत का प्रेरणास्रोत रामगिरी है। इस पर्वत के शिखर की बनावट आज भी वप्रक्रीड़ा करते हाथी जैसे है। सीता गुफ़ा के प्रवेश द्वार के उत्तरी हिस्से में तीन फ़ुट आठ इंच लम्बी दो पंक्तियाँ(जिसमें 2.5 इंच अस्पष्ट) उत्कीर्ण हैं। जो किसी राष्ट्र स्तरीय कवि सम्मेलन का प्रथम प्रमाण कही जा सकती हैं। "आदिपयंति हृदयं सभाव्वगरु कवयो ये रातयं… दुले वसंतिया! हासावानुभूते कुदस्पीतं एव अलगेति। अर्थात हृदय को आलोकित करते हैं, स्वभाव से महान ऐसे कविगण रात्रि में… वासंती दूर है। संवेदित क्षणों में कुन्द पुष्पों की मोटी माला को ही आलिंगित करता है।" इस पंक्ति का मैने छाया चित्र लिया।
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सीताबेंगरा नाट्य शाला के समक्ष लेखक |
गुफ़ा को भीतर से अच्छे से देखा तथा वहां बैठ कर अहसास किया कि उस जमाने में जब यहां नाटक खेले जाते होगें तो यहां से पहाड़ी के नीचे का दृश्य कैसा दिखाई देता होगा? पात्रों के संवाद बोलने के समय उनकी आवाज कहां तक जाती होगी? गुफ़ा तक जाने के लिए पहाड़ियों को काटकर पैड़ियाँ बनाई गयी हैं। नाट्यशाला(सीता बेंगरा) में प्रवेश करने के लिए दोनो तरफ़ पैड़ियाँ बनी हुई हैं। प्रवेश द्वार से नीचे पत्थर को सीधी रेखा में काटकर 3-4 इंच चौड़ी दो नालियाँ जैसी बनी हुई है। शायद यहीं पर नाटक करने के लिए मंच बनाया जाता होगा। कालीदास के मेघदूत का यक्ष इसी जोगीमारा गुफ़ा में रहता था जहां उसने प्रिया को प्रेम का पावन संदेश दिया था यही के प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन कालीदास ने मेघदूत में किया है। यहीं पर जल का कुंड है। वनौषधियाँ, कंदमूल फ़ल भी इस स्थान पर प्रचूर मात्रा में मिलते हैं। गुफ़ा के सामने शासन द्वारा मंच बनाकर इसके प्राकृतिक सौंदर्य को समाप्त कर दिया गया है। सीमेंट से बना यह मंच मखमल में टाट का पैबंद नजर आता है। पर्यटकों की सीधी पहुंच गुफ़ा तक होने के कारण इसका भी क्षरण हो रहा है। यदि ऐसा ही रहा तो इसका प्राकृतिक सौंदर्य समाप्त हो सकता है।
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180 फ़ुट लम्बी सुरंग"हाथी पोल" |
गुफ़ा के नीचे पहाड़ी में हाथी पोल नामक सुरंग है। इसकी लंबाई 180 फ़ुट है। पहाड़ी उस पार के निवासी इस गुफ़ा सुरंग के रास्ते सीता बेंगरा तक आते हैं। यह सुरंग इतनी ऊंची है कि इसमें हाथी आसानी से पार हो जाते हैं। इसीलिए इसे हाथी खोल या हाथी पोल कहा जाता है। हम सीता बेंगरा गुफ़ा से नीचे उतर कर हाथी पोल सुरंग में पहुचे, यहाँ सामने खड़े होने पर सुरंग से दूसरे सिरे आता हुआ प्रकाश स्पष्ट दिखाई देता है। सुरंग के भीतर प्रवेश करने पर जानी पहचानी गंध आती है। यह गंध सभी पुरातात्विक स्थलों पर मिलती है। दिमाग भन्ना जाता है, इस गंध से मुझे प्राचीन जगह की पहचान होती है। यह गंध चमगादड़ के मल-मुत्र की है। जहाँ भी गुफ़ाओं या पुरानी इमारतों में अंधेरा रहता है चमगादड़ उसे अपना आदर्श बसेरा समझ कर निवास कर लेते हैं। सुरंग में पहाड़ी से कई जगह पानी रिस रहा है, आए हुए लोग इस पानी को पी रहे हैं। कुछ लोग धूप से बचने के लिए सुरंग में नींद ले रहे है, एक महिला और उसकी बेटी पत्थरों का चुल्हा बनाकर भोजन बना रही है और खाने के लिए ताजा पत्तों की पत्तल का निर्माण हो रहा है। इससे प्रतीत होता है कि आदिम अवस्था में मनुष्य इन कंदराओं में ऐसे ही गुजर बसर करता होगा।
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रामगढ पहाड़ी का दृश्य ( यह चित्र इंडियन एक्सप्रेस ने चुराया) |
महाकवि कालिदास का रामगिरि और सीतबेंगरा से गहरा नाता है। यह पुरातात्विक प्रमाण और कालिदास द्वारा रचित मेघदूत से मिलते हैं। हम कालिदास से तो मिले नहीं पर उनके द्वारा रचित मेघदूत के छंद और यक्ष-प्रिया की प्रेम कथा अभी तक रामगढ के वनों में पहाड़ियों में गुंज रही है। आज भी मधुमक्खियों के छत्तों से उत्तम मकरंद झर रहा है। महुआ के वृक्ष फ़ल फ़ूल रहे हैं, सरई (साल) के वन गर्व से सिर उठाकर आकाश की ऊंचाई से होड़ लगा रहे हैं। गजराज आज भी अपनी उपस्थिति इस अंचल में बनाए हुए हैं। यहां के हाथी इंद्र के एरावत से कम नहीं है। डील-डौल और कद में उतने ही मजबूत है। आषाढ के प्रथम दिन वर्षा का आगमन नहीं हुआ है। बदला है तो सिर्फ़ प्रकृति का चक्र बदला है। मानसून के आगमन की तिथि पीछे रह गयी। वही मांदर की थाप वनवासियों का नाच हो रहा है। जो रामगढ की गौरव गाथा गा रहे हैं उल्लासित होकर। रामगढ से लौट आया पर मेरा मन उन्हीं कंदराओं में अटका हुआ है जहाँ भगवान श्रीराम के चरण पड़े थे, सीता माता ने निवास किया था। महाकवि कालीदास ने मेघदूत रचा था, जहाँ सुतनुका देवदासी और रुपदक्ष (मेकअप मेन) श्रेष्ठी देवदीन का प्रेम हुआ था। फ़िर कभी लौट कर आऊंगा रामगढ यक्ष बनकर प्रिया से मिलने के लिए आषाढ के प्रथम दिवस में।…………
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