हमारी सुबह देर से हुई, बाकी साथी तैयार होकर चले गए और हम अलसाए पड़े थे। 11 बजे उदयपुर जनपद मुख्यालय में संगोष्ट्री प्रारंभ होनी थी, समय पर पहुंचना ही ठीक होता है। स्नानाबाद नाश्ता करने लिए बाहर जाना पड़ा क्योंकि आर्यन होटल में किचन नहीं है। रुम सर्विस का भी सत्यानाश है। थोड़ी देर में हमारी गाड़ी आ गयी। अनिल तिवारी और बाबु साहब के साथ हम रामगढ पहुचे। वहां राहुल सिंह एवं के पी वर्मा पहुंच चुके थे। साथ में देवनारायण सिंह जी की सुपुत्री भी थी। युवा एसडीएम तीर्थराज अग्रवाल के निर्देशन में कार्य चल रहा था। जनपद के सामुदायिक भवन में संगोष्ठी का उद्घाटन सत्र प्रारंभ हुआ। दीप प्रज्जवल ने के प्रश्चात उपस्थित मुख्यातिथियों के उद्घाटन उद्बोधन के पश्चात "आषाढस्य प्रथमदिवसे" शोध संगोष्ठी प्रारंभ हुई। दो विद्वानों ने अपने शोध पत्र पढे तभी भोजन की घोषणा हो गयी। हम रेस्टहाउस के भोजन स्थल पर आ गए। थोड़े अंतराल के पश्चात संगोष्ठी पुन: प्रारंभ होनी थी।
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डॉ केपी वर्मा |
द्वितीय सत्र में ननका बाबू ने सरगुजा की विरासत के विषय में बहुत ही सारगर्भित जानकारी दी। बताया कि उन्होने किस तरह सरगुजा अंचल को कदमों से नापा है। अनेक स्थानों पर पैदल चल कर गए हैं। जिसका उद्देश्य सरगुजा की देव भूमि को समीप से जानना था। उन्होने सरगुजा के हाथियों का भी जिक्र किया। साथ ही बताया कि जब तापमान नापने का यंत्र नहीं था तो स्थानीय निवासी किस तरह जाड़े को मुट्ठी, बीता, ढूड्डी और हाथ से नापते थे। इसके पश्चात
डॉ कामता प्रसाद वर्मा ने "महेशपुर में प्राप्त नरसिंह प्रतिमाओं" पर अपना शोध-पत्र प्रस्तुत किया। ये नरसिंह प्रतिमाएं विभिन्न मुद्राओं में प्राप्त हुई हैं। वर्मा जी का शोध-पत्र नवीन जानकारीपरक था। कुछ लोगों ने सिर्फ़ अपना शोध पत्र रामगढ (रामगिरि) पर ही केन्द्रित किया था। इसके पश्चात के समारोह के अतिथि मेजर अनिल सिंह आ गए। उनके स्वागत के पश्चात मैने अपना शोध पत्र (छत्तीसगढ की सांस्कृतिक विरासत: हसदपुर) पढा। हसदपुर (हसदा) की जानकारी पहली बार विद्वानों के बीच मेरे द्वारा ही आई। मेरा शोध पत्र निम्नानुसार था -
छत्तीसगढ की समृद्ध पुरातात्विक एवं सांस्कृतिक विरासत
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सिरपुर का मूर्ति शिल्प |
छत्तीसगढ राज्य पुरातात्विक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से सदा से ही वैभवशाली रहा है। जहाँ प्रकृति ने सुंदर कल-कल करते झरने, नदी, नाले, वन पहाड़ों से समृद्ध किया वहीं शिल्पकला, मूर्तिकला, ललितकला एवं अपने तीज त्यौहारों, मेलों से छत्तीसगढ ने अपनी सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध करते हुए विश्व पटल पर अपना स्थान बनाया। बस्तर से लेकर सरगुजा तक पुरातात्विक एवं सांस्कृतिक विरासत के अवशेष कदम-कदम पर बिखरे हुए हैं। छत्तीसगढ़ राज्य चित्रित शिलाश्रयों की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है. इन चित्रों के अध्ययन से प्रागैतिहासिक काल के आदि मानवों की जीवन शैली, उस काल के पर्यावरण तथा प्रकृति की जानकारी प्राप्त होती है. यहाँ मध्याश्मीय काल से लेकर ऎतिहासिक काल तक के शैलचित्र प्राप्त होते है। छत्तीसगढ़ में 32 ऐसे स्थान हैं जहां शैल चित्र खोजे गये है इनमें सबसे ज्यादा रायगढ़ जिले में है। इन शैलचित्रों में प्रदर्शित कुछ अलंकरण आज भी आदिवासी कलाओं में जीवित है। बस्तर जिले में केशकाल लिमदरिहा, सरगुजा जिले में सीतालेखनी, ओंड़गी कुदुगढ़ी आदि अनेक स्थान पर चित्रित शैलाश्रय पाये जाते है. छत्तीसगढ में लगभग 45 धूलि दुर्ग (मड फ़ोर्ट) की खोज हो चुकी है।
माता कौशल्या की जन्मभूमि
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माता कौशल्या की जन्मभूमि चंदखुरी (चन्द्रपुरी) में तीजा उत्सव |
माता कौशल्या की जन्म भूमि होने एवं अयोध्या के राजा रामचंद्र की कर्म भूमि होने के भी प्रमाण मिले हैं। छत्तीसगढ़ में धर्म, कला व इतिहास की त्रिवेणी अविरल रूप से प्रवाहित होती रही है। हिंदुओं के आराध्य भगवान श्रीराम 'राजिम' व 'सिहावा' में ऋषि-मुनियों के सानिध्य में लंबे समय तक रहे और यहीं उन्होंने रावण के वध की योजना बनाई थी। 'राजिम कुंभ' को देश के पाँचवें कुंभ के रूप में मान्यता मिली है। सिरपुर की ऐतिहासिकता यहाँ बौद्धों के आश्रम, रामगिरी पर्वत, चित्रकूट, भोरमदेव मंदिर, सीताबेंगरा गुफ़ा स्थित जैसी अद्वितीय कलात्मक विरासतें छत्तीसगढ़ को आज अंतर्राष्ट्रीय पहचान प्रदान कर रही हैं। आवश्यकता हैं उन्हे संजोने एवं संरक्षित करने के साथ विश्व में प्रचारित और प्रसारित करने की। छत्तीसगढ राज्य निर्माण के पश्चात पुरातत्व तथा संस्कृति के संरक्षण संवर्धन का कार्य होने लगा। पुरातात्विक महत्व के नए स्थान सामने आए एवं प्राप्त स्थानों पर उत्खनन प्रारंभ हुआ। जिससे हमें इतिहास की प्रमाणिक जानकारीयाँ प्राप्त हुई। इसमें सिरपुर, महेशपुर, पचराही एवं
मदकू द्वीप का उत्खनन मील का पत्थर साबित हुआ। वर्तमान में तुरतुरिया एवं तरीघाट में उत्खनन प्रारंभ है।
हसदा (हसदपुर) एक परिचय
छत्तीसगढ में अनेकों ऐसे स्थान है जहाँ तक हम पहुंच नहीं पाए हैं और पहुंच गए हैं तो उसके ऐतिहासिक महत्व के विषय में जानकारी नहीं है। ऐसे ही एक स्थान हसदा (प्राचीन नाम हसदपुर) के विषय में जिक्र करना चाहूंगा। मेरा आलेख हसदा पर ही केंद्रित है।हसदा लगभग 5000 हजार की आबादी का गाँव है। जहाँ साहू, सतनामी, जातियों का बाहुल्य है। हसदा रायपुर जिले की अभनपुर तहसील में रायपुर राजिम मार्ग पर अभनपुर से 10 किलोमीटर पूर्व दिशा में 21N05, 81E46 पर स्थित है तथा कृषि उत्पादन की दृष्टि से समृद्ध ग्राम है। धान एवं चने की खेती होती है, रबी फ़सल के लिए भी पानी उपलब्ध है।
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हसदा ग्राम का गुगल दृश्य |
800 से 1000 वर्ष पुराना पीपल
हसदा में एक प्राचीन पीपल का वृक्ष है जिसकी उम्र लगभग 800 वर्ष है। जहाँ प्राचीन पीपल का वृक्ष है वह मालगुजार की पुरानी बखरी है। बखरी लगभग 3-4 एकड़ की होगी, इसमें एक राम मंदिर बना है और उसके पीछे पीपल का विशाल वृक्ष है। पीपल के नीचे एक प्लेटफ़ार्म बनाकर झोंपड़ी नुमा छाया बनी है। वृक्ष के नींचे एक बहुत बड़ी बांबी है और वहीं पर हनुमान जी का छोटा सा दक्षिण मुखी मंदिर भी बना है। सामने एक वलयाकार हवनकुंड है जिसमें पूजा के फ़ूल चढाए हुए हैं। पीपल के नीचे दीप जलाने के लिए टीन का कांच लगा आयताकार डिब्बा रखा है। बखरी में नाना फ़ड़नवीस रहते है, वे मालगुजार के संबंधी है और हसदा उनका पैतृक गांव है।
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पीपल का वृक्ष और राजा गोपीचंद की तपस्थली |
राजा गोपीचंद की तपस्थली
बाजीराव पेशवा के छोटे भाई चिमना जी अप्पा जब बंगाल पर आक्रमण करने के लिए आए थे तब नाना फ़ड़नवीस के पूर्वज चिमना जी साथ यहाँ पहुचे। छत्तीसगढ पहुचने पर चिमना जी अप्पा को अपने भाई बाजीराव पेशवा की बीमारी की सूचना मिली तो वे लौट गए और उनके पूर्वज यहीं रह गए। नाना फ़ड़नावीस की उम्र लगभग 80 वर्ष है, वे गाँव के हायर सेकेंडरी स्कूल से प्राचार्य पद पर रहते हुए सेवानिवृत हुए हैं। उन्होने बताया कि यह पीपल का वृक्ष लगभग 800 से 1000 वर्ष पुराना है। उनके गुरुजी स्वामी विकासानंद जी ने बताया था कि इस वृक्ष के नीचे बंगाल के राजा गोपीचंद ने तपश्चर्या की थी। राजा गोपीचंद नौ नाथों में जालंधर नाथ के शिष्य थे एवं राजा भृतहरि के भानजे थे। छत्तीसगढ में भरथरी लोक गाथाओं के रुप में प्रचलित है।
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नाना फ़ड़नवीस के साथ |
किलानुमा संरचना
कहते हैं पहले यहाँ किला था। गाँव के चारों ओर खाई थी। जिसके अवशेष अभी भी दिखाई देते हैं। इस खाई की तसदीक मैने की, गांव के अन्य निवासियों से भी जानकारी प्राप्त की। जहाँ खाई थी वहां अब खेत हैं। किन्तु खाई के चिन्ह अभी भी स्पष्ट दिखाई देते हैं। यहां के खेत खाई के हिसाब से गोल बने हुए हैं और इन खेतों को ग्राम वासी अभी भी खइया कहके ही बोलते हैं। हसदा गाँव में 7 तालाब हैं। इससे जाहिर होता है कि कोई बड़ी आबादी पहले यहाँ निवास करती थी और किसी राजा या मालगुजार ने उनकी निस्तारी के लिए तालाब खुदवाए होगें या किले के परकोटे की खाई ने तालाबों का रुप ले लिया होगा।
प्राचीन महामाया मंदिर
उन्होने बताया कि खइया की तरफ़ महामाया का एक प्राचीन मंदिर है। हम मंदिर देखने गए। महामाया मंदिर में देवी के साथ भैरव भी विराजमान हैं। कुछ वर्षों पूर्व महामाया के पक्के मंदिर की जगह कच्चे मिट्टी की कुरिया का निर्माण था। अब पक्का मंदिर बना दिया गया है। यहाँ नित्य पूजा होती है, महामाया का मंदिर यहाँ कब है इसकी कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं है।
स्वामी विकासनंद (लाम्बे महाराज) का आश्रम
हसदा की बखरी में स्वामी विकासानंद का आश्रम है, वे नागपुर से यहाँ आकर निवास करते थे। शांत हो जाने के पश्चात उनके प्रयोग का सामान आज भी यथावत रखा हुआ है। उनके पूजा करने का कमरा भी उसी रुप में है जैसा पहले था। इनके कई आश्रम बताए जाते हैं। नागपुर और जबलपुर के गुवारीघाट के आश्रम प्रमुख है। उन्होने बखरी में एक राम मंदिर का भी निर्माण कराया। कमरछठ के दिन हसदा की समस्त महिलाएं बखरी में ही कमरछठ की पूजा करने आती हैं। इस स्थान पर कमरछठ की पूजा करने की परम्परा बरसों से चली आ रही है।
सितम्बर 1666 ईस्वीं में शिवाजी का आगमन
कुछ शोधकर्ताओं ने अनुमान लगाया है कि औरंगजेब की कैद से जब शिवाजी राजे भागे तो वे आगरा से इटावा, अलाहाबाद, मिर्जापुर, दुधिनगर, अम्बिकापुर, रतनपुर, रायपुर, हसदा, चंद्रपुर होते हुए पुणे गए थे। क्योंकि अन्य मार्गों पर मुसलमानों का कब्जा था तथा इस मार्ग पर तीर्थयात्री देवियों के दर्शन के लिए आते थे। कहते हैं इसी मार्ग से शिवाजी छिपते हुए पुणे गए थे। संभवत: शिवाजी सितम्बर माह सन 1666 ईसवीं में हसदा आए थे। आगरा से निकल कर शिवाजी के चंद्रपुर आने का उल्लेख चंद्रपुर दर्शन पत्रिका में उल्लेखित है। चंद्रपुर के इतिहासकार दत्तात्रेय नानेरकर एवं अशोक ठाकुर इसकी पुष्टि करते हैं।
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प्रमाण पत्र |
प्रारंभिक जानकारियों से प्रतीत होता है कि हसदा का इतिहास से गहरा नाता है, क्योंकि 8 किलोमीटर दूर महानदी चित्रोत्पला गंगा बहती है और कुलेश्वर (उत्पलेश्वर) महादेव का मंदिर एवं राजीव लोचन भगवान का मंदिर स्थित है। हसदा की भौगौलिक स्थिति से तो पता चलता है कि अवश्य ही यहाँ इतिहास के कुछ पन्ने समय की गर्द में दबे पड़े हैं जिन्हे सामने लाना चाहिए। जिससे छत्तीसगढ के पुरातात्विक एवं गौरवमयी इतिहास में एक कड़ी और जुड़ जाएगी। विस्तार पूर्वक प्रामाणिक जानकारी उत्खनन एवं शोध के पश्चात ही मिल सकती है।
शोध-पत्र प्रस्तुत करने के पश्चात हम
महेशपुर के लिए चल पड़े। जारी है……
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