प्राकृतिक सुषमा से भरपूर अद्भुत सौंदर्य एवं प्राचीन गढ़ों के प्रदेश छत्तीसगढ़ को प्रकृति ने नैसर्गिक रुप से अनुपम शृंगार दिया है। शस्य श्यामला धरा के मनमोहक शृंगार के संग यहाँ के प्राचीन मंदिरों, बौद्ध विहारों एवं जैन विहारों में मानवकृत अनुपम मिथुन शिल्प सौंदर्य का दर्शन होता है। कलचुरियों, पाण्डूवंशियों एवं नागवंशियों ने अपने कार्यकाल में भव्य मंदिरों एवं विशाल बौद्ध विहारों का निर्माण कराया। इसके साथ ही अन्य शासकों द्वारा निर्मित मंदिर भी मिलते हैं। निर्माण कार्यों में शिल्पकारों ने अपनी कला कौशल का प्रभावी परिचय दिया है। उनके द्वारा उत्कीर्ण शिल्प आज भी दर्शकों का मन मोह लेता है।
आलिंगन - राजीव लोचन मंदिर (राजिम) |
मिथुन शिल्प के लिए खजुराहो को अधिक प्रसिद्धि मिली, परन्तु छत्तीसगढ़ के मंदिरों का मिथुन शिल्प भी अनूठा और खजुराहो से कमतर नहीं है। आरंग के भांड देवल जैन मंदिर, सिरपुर के तीवरदेव बौद्ध विहार, कबीर धाम के भोरमदेव, बारसूर के चंद्रादित्य मंदिर, महेशपुर के निशान पखना, नारायणपुर के महादेव मंदिर, छप्परी के मंड़वा महल, राजिम के राम मंदिर, फ़िंगेश्वर के फ़णीकेश्वर महादेव मंदिर में तथा आंशिक रुप से जांजगीर के नकटा मंदिर, शिवरीनारायण के केशवनारायण मंदिर, पाली के शिवालय में शिल्पकारों ने शिल्पशास्त्रों एवं कामशास्त्रों के मानकों के आधार पर मिथुन-मैथुन प्रतिमाओं का निर्माण किया है। ये प्रतिमाएँ अपनी ओर सहज ही दर्शक का ध्यान आकृष्ट कराती है।
चुंबन तीवरदेव बौद्ध विहार ( सिरपुर) |
कामसूत्र में उल्लेखित बाभ्रवीय आचार्यों के अनुसार आलिंगन, चुंबन, नखक्षत, दंतक्षत, संवेशन, सीत्कृत, पुरुषायित तथा मुख मैथुन इत्यादि अष्टमैथुन क्रियाएँ होती है। स्वामी दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में "स्मरण, कीर्तन, केलिः, प्रेक्षणं, गुह्यभाषणम्, सङ्कल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिष्पत्तिरेव च ॥" अर्थात स्त्री का स्मरण, स्त्री सम्बन्धी बात चीत करना, स्त्रियों के साथ खॆलना, स्त्री को देखना, स्त्री से गुप्त भाषण (बात) करना, स्त्री से मिलनें का संकल्प करना, स्त्री की जिज्ञासा करना, स्त्री के साथ रहने को अष्टमैथुन माना है। उपरोक्त विषयों को शिल्पकारों ने अपने शिल्प में स्थान दिया।
मिथुन शिवालय (पाली-बिलासपुर) |
कामशास्त्र पर संस्कृत में 'अनंगरंग', 'कंदर्प चूड़ामणि', 'कुट्टिनीमत', 'नागर सर्वस्व', 'पंचसायक', 'रतिकेलि कुतूहल', 'रति मंजरी', 'रति रहस्य', 'रतिरत्न प्रदीपिका', 'स्मरदीपिका', 'श्रृंगारमंजरी' आदि कई ग्रंथ हैं। इसके अतिरिक्त 'कुचिमार मंत्र', 'कामकलावाद तंत्र', 'काम प्रकाश', 'काम प्रदीप', 'काम कला विधि', 'काम प्रबोध', 'कामरत्न', 'कामसार', 'काम कौतुक', 'काम मंजरी', 'मदन संजीवनी', 'मदनार्णव', 'मनोदय', 'रति मंजरी', 'रति सर्वस्व', 'रतिसार', 'वाजीकरण तंत्र' आदि संबंधित ग्रंथ हैं। सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ कामसूत्र के हिन्दी टीकाकार डॉ गंगा सहाय शर्मा कहते हैं कि "अत्यंत आश्चर्य होता है कि आज से दो हज़ार वर्ष से भी पहले विचारकों को स्त्री और पुरुषों के मनोविज्ञान का इतना सूक्ष्म ज्ञान था।"
मिथुन - चंद्रादित्य मंदिर बारसूर |
वात्सायान के कामसूत्र में वर्णित अष्ट मैथुन का सजीव चित्रण मंदिरों की भित्तियों पर जीवंत होता हुआ दिखाई देता है। वात्सायन ने कामसूत्र को शब्दों में रचा और शिल्पकारों ने इसका मंदिरों में चित्रिकरण करके स्त्री-पुरुष के मनोविज्ञान को जन-जन तक शिक्षा की दृष्टि से पहुंचाया। मैथुन मूर्तियों को बौद्ध, शैव, वैष्णवों, जैनों आदि सभी पंथों ने अपने मंदिरों में स्थान दिया। बारसूर के चंद्रादित्य मंदिर स्थित एक प्रतिमा में प्रसव को भी उत्कीर्ण किया गया है। पुराविद डॉ शिवाकांत बाजपेयी कहते हैं "नवीं शताब्दी से 13 वीं शताब्दी के मध्य सामंतवादी शक्तियों ने अपने मनोरंजनार्थ मैथुन प्रतिमाओं को मंदिर की भित्तियों में स्थान दिया।"
मिथुन - भांडदेवल जैन मंदिर (आरंग) |
मैथुन प्रतिमाओं के निर्माण के पीछे एक कारण यह भी बताया जाता है कि उस समय गृहस्थ धर्म से विमुख होकर अधिकतर युवा ब्रह्मचर्य और सन्यास की ओर अग्रसर हो रहे थे, उन्हें गृहस्थ धर्म समझाने के लिए इन प्रतिमाओं को मंदिरों में स्थान दिया गया। आचार्य रजनीश कहते हैं "यदि काम, मन से बाहर रहेगा तभी हृदय में राम (ईश्वर) का निवास होगा। जन मानस को यही शिक्षा देने के लिए मंदिरों के गर्भ गृह में भगवान की प्रतिमा स्थापित करने के साथ बाहरी भित्तियों पर मैथुन प्रतिमाओं की स्थापना की जाती थी। अर्थात ईश्वर से अगर मिलन करना हो तो काम से तृप्त हो उसे बाहर ही छोड़ कर आना होगा। तभी ईश्वर तत्व की प्राप्ति होगी।"
मिथुन - फ़णिकेश्वर महादेव (फ़िंगेश्वर जिला गरियाबंद) |
मैथुन प्रतिमा निर्माण के एक पक्ष को उद्धृत करते हुए उदयपुर के डॉ श्री कृष्ण जुगनु कहते हैं "मंदिरों में कार्य करने वाले शिल्पकार बरसों यौनाचरण से वंचित रहते थे, उन्होनें यौन कुंठाएँ शांत करने की दृष्टि से भी इन प्रतिमाओं का निर्माण कर मैथुनानंद प्राप्त किया होगा।" साथ ही मिथक है कि आकाशीय बिजली से मंदिर को सुरक्षा देने की दृष्टि से भी मंदिरों में मिथुन प्रतिमाओं का निर्माण किया गया, उस काल में मान्यता थी कि यदि मंदिरों में मिथुन प्रतिमाएं स्थापित की जाएंगी तो उन्हें आकाशीय बिजलियों से सुरक्षा मिलेगी। इसलिए कई मंदिर परिसरों में सिर्फ़ एक-दो मिथुन प्रतिमाएँ ही दिखाई देती हैं।
मिथुन - शिवालय (पाली-बिलासपुर) |
कामग्रंथों में वर्णित अष्ट मैथुन को मंदिरों की भित्तियों स्थान देने के साथ ही नारी नखशिख शृंगार को भी प्रमुखता से अभिव्यक्त किया गया। उस जमाने में समाज में इतना खुलापन नहीं था जो अष्ट मैथुन जैसे विषय पर सार्वजनिक चर्चा कर सकें। इसे मंदिरों में उत्कीर्ण करवाने पर लोगों ने अवश्य ही इसका लाभ उठाया। मैथुन जैसे गोपनीय कार्य को सावर्जनिक करने पर इसे कौतुहल की दृष्टि से देखा गया और लोग मंदिरों की ओर आकृष्ट हुए। वे पर्यटक जो खजुराहो में मिथुन सौंदर्य देखने जाते हैं उनके लिए छत्तीसगढ़ के प्राचीन मंदिरों में दर्शनीय सामग्री भरी पड़ी है। पर्यटकों के लिए मिथुन-मैथुन सर्वकालिक कौतुहल का विषय था और रहेगा। इससे कोई बिरला ही अछूता हो सकता है।
डिस्क्लैमर :- कई पाठकों ने मंदिरों में मिथुन मूर्तियों के निर्माण का उद्देश्य जानना चाहा था, इस आलेख में पाठकों की मंदिरों में मिथुन मूर्तियों के निर्माण के उद्देश्यों के प्रति जिज्ञासा शांत कराने एवं छत्तीसगढ़ के मिथुन शिल्प की जानकारी देने का प्रयास किया गया है।
सुन्दर प्रस्तुतीकरण अड़भार के मूर्ति की थोड़ी खोजबीन करेँ उसमें बगेर किसी विकृति के कॉम का प्रदर्शन प्रभावी है
जानकारी पूर्ण रोचक आलेख .
देश के अधिकांश क्षेत्रों मे ९ वी से १२ वी सदी के मध्य ही मंदिरों में मैथुन शिल्प को स्थान दिया गया .
lalit babhi sodhpurn sundar shityik sandrhbon ke saath likhe is llekh ke liye badhai.
पहली बार इतना सुन्दर प्रस्तुतिकरण देखा..छत्तीसगढ़ के सर्वपंथीय मंदिर मिथुन-मैथुन प्रतिमाओं से भरे पड़े हैं सुनकर ऐतिहासिक धरोहर का एहसास हुआ..छत्तीसगढ़ घूमने की जिज्ञासा पैदा हो गयी है...बाहर काम छोड़कर अंदर इश्वर की अनुभूति के लिए .....साधुवाद
पहली बार इतना सुन्दर प्रस्तुतिकरण देखा..छत्तीसगढ़ के सर्वपंथीय मंदिर मिथुन-मैथुन प्रतिमाओं से भरे पड़े हैं सुनकर ऐतिहासिक धरोहर का एहसास हुआ..छत्तीसगढ़ घूमने की जिज्ञासा पैदा हो गयी है...बाहर काम छोड़कर अंदर इश्वर की अनुभूति के लिए .....साधुवाद
हर एक शब्द और चित्र सौन्दर्य से अलंकृत....प्रभावशाली लेख.. ज्ञानवर्धक भी ..... छत्तीसगढ़-परिप्रेक्ष्य में इस विषय पर प्रकाश डालने के लिए.. साधुवाद
हर एक शब्द और चित्र सौन्दर्य से अलंकृत....प्रभावशाली लेख.. ज्ञानवर्धक भी ..... छत्तीसगढ़-परिप्रेक्ष्य में इस विषय पर प्रकाश डालने के लिए.. साधुवाद
शिवशक्ति युगल बहुत सुन्दर शब्दों में पिरोया !
धन्यवाद !!
काम या मैथुन जैसे विषय पर प्रायः लेखक दूर ही रहते है।पर आपने विषय को जिस सुंदरता से और विस्तार से लिखा है। मैं आपको बधाई देता हूँ ।
खुजराहो के मंदिर अपनी मैथुनरत मूर्तियों के चलते देश विदेश में प्रशंसा पा ही चुके है, ऐसे में आपका छतीसगढ़ के इन मंदिरों की जानकारी प्रकाशित करना अपने आप में महत्वपूर्ण भी है और रोचक भी।
इसमे कोई दो राय नही कि छतीसगढ़ और झारखंड दो ऐसे राज्य है जो अपनी प्राकृतिक सम्पदाओं और कला तथा संस्कृति से धनी हैं परंतु अभी तक पर्यटक सूची में वह स्थान नही पा सके, जिसके हकदार हैं।
मैथुनमूर्तियों के निर्माण के सम्बंध में इतिहासकारों में सदैव ही अलग अलग मत रहे हैं, और आपका प्रयास सराहनीय है कि आपने एकाधिक धारणाओं को अपने आलेख में स्थान दिया है।
मुझ जैसे अधिसंख्य लोग कामशास्त्र में केवल वात्सायन के नाम से ही परिचित हैं, परन्तु आपके इस आलेख में दर्जनों अन्य पुस्तकों और ग्रन्थों की जानकारी मिलना अपने आप में ही दुर्लभ है।
ऐसा सर्वथा सम्भव है कि भारतीय मनीषी 'आठ' की संख्या से काफी प्रभावित रहे हैं। कामशास्त्र में भी 'अष्ट' प्रकार के भेद जानना दिलचस्प है, स्वाभाविक है कि इन अष्ट भेदों में आगे चलकर अनेक मुद्राएं एवं आसन भी होंगे।
इतने खुले समाज को, आज अपने सामने ही एक बन्द और जड़ समाज में परिवर्तित होते देखना एक दुखद अहसास है वाकई!
बहरहाल, आपके ज्ञान और लेखन को सलाम और साधुवाद कि आपके द्वारा छतीसगढ़ की इन धरोहरों को देखने के हम साक्षी बने, आज भले ही आभासी पर आशा है कि जल्द ही इनके वास्तविक अवलोकानार्थ का भी सौभाग्य मिलेगा।
पुनः धन्यवाद एक ज्ञानवर्धक और जानकारी से परिपूर्ण पोस्ट शेयर करने के लिए ��
खुजराहो के मंदिर अपनी मैथुनरत मूर्तियों के चलते देश विदेश में प्रशंसा पा ही चुके है, ऐसे में आपका छतीसगढ़ के इन मंदिरों की जानकारी प्रकाशित करना अपने आप में महत्वपूर्ण भी है और रोचक भी।
इसमे कोई दो राय नही कि छतीसगढ़ और झारखंड दो ऐसे राज्य है जो अपनी प्राकृतिक सम्पदाओं और कला तथा संस्कृति से धनी हैं परंतु अभी तक पर्यटक सूची में वह स्थान नही पा सके, जिसके हकदार हैं।
मैथुनमूर्तियों के निर्माण के सम्बंध में इतिहासकारों में सदैव ही अलग अलग मत रहे हैं, और आपका प्रयास सराहनीय है कि आपने एकाधिक धारणाओं को अपने आलेख में स्थान दिया है।
मुझ जैसे अधिसंख्य लोग कामशास्त्र में केवल वात्सायन के नाम से ही परिचित हैं, परन्तु आपके इस आलेख में दर्जनों अन्य पुस्तकों और ग्रन्थों की जानकारी मिलना अपने आप में ही दुर्लभ है।
ऐसा सर्वथा सम्भव है कि भारतीय मनीषी 'आठ' की संख्या से काफी प्रभावित रहे हैं। कामशास्त्र में भी 'अष्ट' प्रकार के भेद जानना दिलचस्प है, स्वाभाविक है कि इन अष्ट भेदों में आगे चलकर अनेक मुद्राएं एवं आसन भी होंगे।
इतने खुले समाज को, आज अपने सामने ही एक बन्द और जड़ समाज में परिवर्तित होते देखना एक दुखद अहसास है वाकई!
बहरहाल, आपके ज्ञान और लेखन को सलाम और साधुवाद कि आपके द्वारा छतीसगढ़ की इन धरोहरों को देखने के हम साक्षी बने, आज भले ही आभासी पर आशा है कि जल्द ही इनके वास्तविक अवलोकानार्थ का भी सौभाग्य मिलेगा।
पुनः धन्यवाद एक ज्ञानवर्धक और जानकारी से परिपूर्ण पोस्ट शेयर करने के लिए ��
Nice artical sir. Humne ek user supported bloge banaya hai jisme aap jitne comment karenge utne hi user apki website me comment karenge.
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