बस्तर का दशहरा पर्व

प्रस्तुतकर्ता Unknown बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

बस्तरराज की कुलदेवी दंतेश्वरी माई 
त्तीसगढ़ में बस्तर का दशहरा पर्व प्रसिद्ध है। 75 दिनों तक चलने वाले इस त्यौहार को आदिवासियों के साथ सारा बस्तर मनाता है। यहाँ दशहरे में रावण का पुतला फूंकने की परम्परा नहीं है। यह देवी दंतेश्वरी की आराधना का त्यौहार है। चलिए आपको बस्तर के दशहरा की सैर कराते हैं। दशहरा का प्रारंभ पाट जात्रा से होता है। पाटजात्रा का अर्थ है लकड़ी की पूजा। बस्तर के आदिवासी अंचल मे लकड़ी को अत्यंत पवित्र माना जाता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक लकड़ी मनुष्य के काम आती है इसलिए आदिवासी संस्कृति मे इसका विशिष्ट स्थान है। हरेली अमावश को लकड़ी के एक बड़े तने को महल के सिंह द्वार पर लाकर पूजा जाता है। इसे पाटजात्रा कहते हैं। 

पाटजात्रा के बाद रथ निर्माण 
इसके बाद डेरी गढ़ई होती है। भादो मास के शुक्ल पक्ष के द्वादशी को लकड़ी के एक स्तंभ को सीरसार अर्थात जगदलपुर के टाउन हाल में स्थापित किया जाता है। सीरसार चौक दशहरा मनाने का केन्द्र स्थल है। दशहरा उत्सव की वास्तविक शुरुवात में एक मिरगन पनिका कुल की एक कन्या पर देवी के रूप में पूजा की जाती है तथा उसे देवी के सिंहासन पर बैठाकर कर झुलाया जाता है. इसके पश्चात कलश स्थापना नवरात्रि के प्रथम दिन की जाती है। फिर जोगी बिठाई का कार्यक्रम सम्पन्न किया जाता है। इस परम्परा के अंतरगत सिरासर चौक में एक व्यक्ति के बैठने लायक गड्ढा खोद कर एक युवा जोगी (पुरोहित) को उसमें बैठाया जाता है जो नौ दिन नौ रात तक वहां पर बैठ कर इस समारोह की सफलता के लिए प्रार्थना करता है, उपरोक्त पूजा कार्यक्रम का प्रारम्भ मांगुर प्रजाति की मछली की बलि से किया जाता है।

जोगी बिठाई 
जोगी बिठाई के दूसरे दिन ही रथ परिक्रमा प्रारंभ होती है, पूर्व में 12 चक्के का एक रथ बनाया जाता था, लेकिन वर्त्तमान में दो रथ क्रमश: 4 एवं 8 चक्के के बनाये जाते है, फूलों से सजे 4 चक्के के रथ को "फूल रथ" कहा जाता है, जिसे दुसरे दिन से लेकर सातवें दिन तक हाथों से खींच कर चलाया जाता है,पूर्व में राजा फूलों की पगड़ी पहन कर इस रथ पर विराजमान होते थे ,वर्तमान में कुलदेवी दन्तेश्वरी का छत्र रथ पर विराजित होता है। निशा जात्रा के रात्रि कालीन उत्सव मे प्रकाश युक्त जुलूस इतवारी बाजार से पूजा मंडप तक निकला जाता है, नवरात्रि के नवमें दिन जोगी उठाई की रस्म निभाई जाती है। आठवें दिन मौली परघाव का कार्यक्रम होता है। महाष्टमी की रात्रि में मौली माता का दन्तेवाडा के दन्तेश्वरी मंदिर से दशहरा उत्सव हेतु विशिष्ट रूप से  आगमन होता है।

दशहरा पर मुख्यरथ भ्रमण 
चन्दन लेपित एवं पुष्प से सज्जित नवीन वस्त्र के रूप में देवी आकर जगदलपुर के महल द्वार में स्थित दन्तेश्वरी मंदिर में विराजित होती है नव रात्रि के नवमे दिन शाम को गड्ढे में बैठाये गए जोगी को परम्परागत पूजन विधि के साथ भेंट देकर धार्मिक उत्साह के साथ उठाया जाता है, विजयादशमी वाले दिन से ८ चक्के का रथ चलने को तैयार होता है, इस रथ पर पहले राजा विराजते थे अब माँ दन्तेश्वरी का छत्र विराजता है तथा यह रथ पूर्व में चले हुए फूल रथ के मार्ग पर ही चलता है, जब यह रथ सीरासार चौक पर पहुचता है तो इसे मुरिया जनजाति के व्यक्ति द्वारा चूरा कर 2 किलोमीटर दूर कुम्भदकोट नामक स्थान पर ले जाया जाता है, इस परम्परा को "भीतर रैनी" कहते हैं। 

जोगी उठाई 
समारोह के 12 वें दिन देवी कंचन की समारोह के सफलता पूर्वक सम्पन्न होने के उपलक्ष्य में कृतज्ञता ज्ञापित की जाती। इसे कंचन जात्रा कहते हैं। इसी दिन मुरिया दरबार सजता है। सीरसार चौक पर मुरिया समुदाय के मुखिया, जन प्रतिनिधि एवं प्रशासक एकत्रित होकर जन कल्याण के विषयों पर चर्चा करते हैं। समारोह के 13 वें दिन मौली माता को शहर के पश्चिमी छोर पर स्थित मौली शिविर में समारोहपूर्वक विदाई दी जाती है, इस अवसर पर अन्य ग्राम एवं स्थान देवताओं को भी परम्परागत रूप से बिदाई दी जाती है, इस प्रकार यह संपूर्ण समारोह सम्पन्न होता है। छत्तीसगढ़ अंचल परम्पराओं एंव संस्कृति सम्पन्न अंचल है। प्रकृति ने इसे अपनी नेमतों से नवाजा है। प्राकृतिक सुंदरता, पुरातात्विक धरोहरें, उपजाऊ भूमि, सांस्कृतिक परम्परा, साम्प्रदायिक सद्भावना, आपसी सामन्जस्य से परिपूर्ण छत्तीसगढ़ प्रदेश संसार के किसी भी स्थान से कम नहीं है।

1 Responses to बस्तर का दशहरा पर्व

  1. बस्तर के इस अनोखे दशहरे के बारे में जानना बहुत अच्छा लगा... आपको विजयादशमी की हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनायें...

     

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणी का स्वागत है,आपकी सार्थक सलाह हमारा मार्गदर्शन करेगी।

Twitter Delicious Facebook Digg Stumbleupon Favorites More